Friday, May 2, 2008

पडोस

इसा मसीह कह गये हैं"लव दाई नेबर्स’,यानि पडोसी से प्रेम करो.आज के चिट्ठे में मैं इसी विषय पर बात कर रही हूं.१७ सालों से पतिदेव के साथ साथ विभिन्न शहरों की रज चख चिकी हूं .जगह जगह पडोसी मिले,अच्छे बुरे सभी तरह के.कई ऐसे भी मिले जिनकी स्मृति कभी विलग नहीं होती.नयी नयी शादी हुई थी जब हम दोनों अजमेर शहर पहुंचे.छोटा सा सुन्दर शहर, अच्छे लोग और सबसे मज़े की बात कि पडोस में ही मेरी सबसे प्रिय सहेली नीता और उसका परिवार रहते थे, जिन्होंने हमें वहां बसने में हर तरह की मदद की. बहर हाल जिस घर में हम किराये पर रहने के लिये गये, वहां हमारे मकान मालिक ही हमारे पडोसी थे.उनके लगभग ६ बच्चे थे,लगभग इसलिये कि १.५ वर्ष में मैं उनके पूरे परिवार को एक साथ नहीं देख पाई.इस परिवार की खास बात ये थी कि सबकी अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग था उन्हें इस बात से कोई फ़र्क नहीं पडताथा कि कोई उनके यहां किराये से भी रहता था.ना मकान मालकिन कभी बात करने आयीं, ना उनके बच्चे. हां, शर्माजी जरूर बहाने से हमारे घर आकर मुझे एक कामयाब पत्नी बनने के, पति को मुट्ठी में बनाये रखने के टिप्स देते रहते थे.
एक पडॊसिन मुझे दिल्ली की याद आती है,जो अति मितव्ययी थी. उन्हें कंजूस कहना अशिष्टता होगी.वो बहुत ही सा्धारण तरीके से अपना जीवन यापन करती थी किन्तु शान में कोई कमी नहीं थी.जब भी उनका भतीजा उनसे मिलने आता, वो हमारे यहां चली आती और कहती,भतीजा कौफ़ी मांग रहा है,हम तो कौफ़ी पीते नहीं, तुम थोडी सी दे दो." मैं अच्छे पडोसी का फ़र्ज़ निभाते हुए उन्हें कौफ़ी पकडा देती. हद तो तब हो गई जब एक दिन उन्होंने कहा, "भतीजा आया है".ये सुनते ही आदत के मुताबिक मैने रसोई की ओर प्रस्थान किया तो बोली,"रोज़ रोज़ कौफ़ी मांगना अच्छा नहीं लगता,ऐसा करो वो अभी सो रहा है,तुम कौफ़ी बना कर ही दे दो,उसे क्या पता लगेगा." मैं अवाक.कभी उनको सर में मेंहन्दी लगानी होती तो कौफ़ी मांग लेती.कभी यानी महीने में सिर्फ़ ४ बार.कुल मिला कर स्थिति यह हो जाती कि हमारी महीने भर के लिये लाई गई कौफ़ी उन्हीं पर कुर्बान हो जाती.दूसरी चीज़ वो मांगती थी, अमचूर की खटाई.कहती,"भई,हम तो गला खराब होने के डर से कभी खटाई घर में नहीं लाते, पर क्या करें आज करेले/भरवां भिन्डी बनायी है, खटाई दे दो.वो महीने भर में ७-८ दफ़े खटाई वाली सब्ज़ी बनाती और बेचारा अमचूर हमारा शहीद होता और हां,हमारे अमचूर से उनका गला कभी खराब नहीं होता.एक उनको सिलाई का बेहद शौक था, किन्तु धागे कौन खरीदे.मैं सिलाई करने में निपट अनाडी, किन्तु रंगबिरंगे धागे इकट्ठे करने की शौकीन थी.बस फ़िर क्या था,आ कर कहती"तुम्हारे यहां तो धागे बेकार पडे हुए हैं, लाओ फ़लाने रंग का धागा दे दो." इस प्रकार उन्होने हमारे धागे का कलेक्शन खत्म कर के ही दम लिया.मैने भी फिर और धागे लाने से तौबा कर ली.अब पडोसी से तौबा तो नहीं कर सकते ना.
मेरी आदत है कि जब कोई नया पडोसी आता है, तो उन्हें मदद के लिये पूछ लेती हूं.इस से मेरा और उनका जीवन भर के लिये रिश्ता बन जाता है.एक बार एक नये पडोसी मेरे साथ वाले घर में रहने के लिये आये तो मैने आदतन उनसे संपर्क किया.उन महिला ने मुझे घर में बुलाये बगैर ही, सर से पैर तक घूरा जैसे मैं कोई सेल्सगर्ल हूं,फ़िर बेहद रूखेपन से बोली,"देखो लल्लोचप्पो कर के मेरे हस्बैण्ड की बडी पोस्ट का फ़ायदा उठाने की कोशिश मत करो, ना हम किसी से दोस्ती करते हैं और ना ही किसी को अपना दोस्त बनाते हैं". मुझे आज तक नहीं पता कि उनके हस्बैण्ड की पोस्ट कितनी बडी है और उससे क्या फ़ायदा उठाया जा सकता है.ऐसी ही एक नयी पडोसिन को हमने उनके सामान जम जाने तक उनके ८ माह के बेटे को संभालने का आश्वासन दिया.उन्हें सामान जमाये हुए १ साल बीत गया है किन्तु उनका बच्चा हमारे यहां परमानेन्टली जम गया है.वो सिर्फ़ सोने औए नहाने के लिये ही हमारे घर से जाता है.सब मुझे एक के बजाये दो बच्चों की मां समझते हैं और आश्चर्य करते हैं,अरे ! दो बच्चों में १४ साळ का गैप? अब मुझे बताइये,मैं क्या करूं? अच्छी पडोसी बनी रहूं या----???

7 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

लव दाइ नेबर्स। पर लव हमेशा उनकी डिमाण्ड तुष्ट करने में नहीं होता।
शठे शठ्यम समाचरेत! यह भी किसी महान का कथन है! :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

आदतें जैसी बन जाती हैं, बन जाती हैं, वे न जाती हैं, हम ही कर लेते हैं उन से तौबा, वे हम से नहीं करती.

Anonymous said...

अच्छे पडोसी किस्मत से मिलते हैं। ये आपके पडोसी सोंचते होंगे :)
मदद करना ठीक है और कोई नाजायज फायदा उठाने लगे तो उन्हे रस्ता दिखाना भी आना चहिये..यह अलग बात है कि ऐसा करना मुश्किल होगा आपके लिये।
इस ब्लाग का लिंक अपने पडोसियों को भेज दीजिये :)

Anonymous said...

:):) ek achhi padosi bani rahiyega,magar kabhi kabhi nahi kehna bhi sikh lena chahiye.bahut hi achhi post hai.

neelima garg said...

doing good work ( social ) ....

मेनका said...

haan kabhi kabhi "naa" kahana jaruri hai...straight forward rahna hi fayde ki baat hai.

सागर नाहर said...

वो महीने भर में ७-८ दफ़े खटाई वाली सब्ज़ी बनाती और बेचारा अमचूर हमारा शहीद होता और हां,हमारे अमचूर से उनका गला कभी खराब नहीं होता.
हा हा हा..
मेरी एक बहुत बुरी आदत है जब मैं अखबार पढ़ता हूँ एकदम साफ सुथरा होना चाहिये, सारे पन्ने करीने से जमे हुए। जब मैं पढ़ कर उठता हूँ तब भी अखबार ऐसा होता है मानो अभी अभी आया हो।
कुछ सालों पहले मेरे एक पड़ौसी को इसी तरह अखबार पढ़ने मांगकर पढ़ने की आदत पड़ गई, और वो भी पेपर के आते ही तुरंत।
जब अखबार वापस आता सारे पन्ने उल्टे मुड़े हुए और अलग अलग होते मानो रद्दी वाले के यहां से पुराना पेपर लेकर आये हों। अखबार की हालत देखकर इतनी कुढ़न होती जितनी आपको होती थी, एक दिन जब वे अखबार मांगने आये मैने चिढ़कर दो रुपये दिये कि वहाँ सामने स्टाल से नया खरीद लीजिये.. फिर क्या था जोइ गालियाँ और डाँट सुननी पड़ी क्या कहें आपको।
एक फायदा हुआ, उनका मुजसे अखबार मांगना जरूर बंद हो गया। :)
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