मै एक नारी हूं.बचपन से ही सुनती आयी हूं, नारी देवी के समान है.जब छुटपन में नवरात्रों की अष्टमी- नवमी के दिन कन्या के रूप में बुला कर पैर पूजे जाते थे, पैसे और उपहार दिये जाते थे तो सच में मुझे अपने लडकी होने पर बेहद गर्व होता था.लेकिन जब धीरे-धीरे बडी होने लगी तो ये अह्सास दिलाया जाने लगा कि तुम लडकी हो, तुम्हें पराये घर जाना है, ये करो, ये मत करो.देखती थी भाई को कहीं आने जाने की रोक टोक नहीं थी, बस मुझे अकेले कहीं आने जाने की इज़ाज़त नही थी.शुरु से ही वाचाल थी, इसलिये हमेशा दादी कहती थी, यहां ये बातूनीपन बन्द कर, अपने घर जाकर बातें बना के देखना, तेरे घर वाले तुझे ठीक कर देंगे.मेरा बालमन अचरज से भर जाता, ये ही तो मेरे घर वाले हैं, और कहां से आयेंगे.कभी भी कुछ अपनी मर्ज़ी से करती, तो सुनने को मिलता यहां तुम्हारी मर्ज़ी नहीं चलेगी, अपने घर जाकर जो करना हो करना.भाई से कभी कोई ऐसी बात नहीं करता था,क्यों ? स्कूल की पढाई खत्म हो गई, दादी ने पापा को समझाया, अब इसे घर गृहस्थी के काम सिखाएंगे, नहीं तो ये अपना घर कैसे चलायेगी? मुझे कभी समझ नहीं आया, ये मेरा घर क्यों नहीं है? यहां मैने जन्म लिया है, यहां मैं बडी हुई हूं, फ़िर ये मेरा घर कैसे नही? जो भाई को स्वतन्त्र्ता मिली हुई है, वो मुझे कब मिलेगी ? मैने स्थिति से समझौता कर लिया. धीरे धीरे,कॊलेज की पढाई करते हुए आंखों में रंगीन सपने तैरने लगे, अपने घर के.जब बात शादी की चली तो सब की राय ली गई, (छोटे भाई की भी), मेरे सिवा.फिर मेरी शादी हो गई.
मन में उत्साह था, अपने घर संसार की शुरुआत करने का.जिस तरह के पर्दों की बचपन से तमन्ना थी, अब वैसे ही अपने घर में लगाऊंगी, बाहर बाल्कनी में गमले खुद ही पसंद करून्गी. वहां तो दादी नींबू, गुलाब और मोगरे से आगे ही नहीं बढने देती थी.और हां, अब अपने हिसाब से ही कपडे पहनूंगी,वहां तो भाई जीन्स या स्कर्ट को हाथ भी नहीं लगाने देता था.ससुराल में कदम रखते ही सास बोली, "देखो बहू,यहां तुम्हे सब का लिहाज़ करना होगा.सबकी पसन्द के हिसाब से रहना होगा".सिर झुका कर सुन लिया.मैं खुद भी खुश रहना चाहती थी, सबको भी खुश रखना चहती थी.जब पहली बार सोकर उठने में देर हुई तो सास बोली , ये तुम्हारा घर नही है, जहां जब जी आया उठ गये,सुबह जल्दी उठने की आदत डालो. पति के साथ बाहर जाते वक्त जीन्स पहन ली तो सब की भृकुटी तन गयी.पति ने आंख तरेर कर कहा, ये सब अपने घर में पहन चुकी हो, यहां तो मेरे और परिवार की पसंद से कपडे पहनो.घर की सजावट में फ़ेरबदल करनी चाही तो सुनने को मिला, ये तुम्हारा घर नहीं जहां जब जो जी में आया हटा दिया, जो जैसा है वैसा ही रहने दो.ननद की शादी तय करते वक्त भी मेरी राय नहीं ली गई, बिन मांगे देनी चाही तो कहा गया, अपनी राय अपने घर वालों के लिये रखो, हमें निर्णय लेने की समझ है.अब मैं बैठी सोच रही हूं ,मेरा घर है कहां? है भी या नहीं? आज याद आया शादी के ३० साल बाद भी मां को दादी से यही सुनने को मिलता है जो मैं सुनती आयी हूं.मां ने अपनी ज़िन्दगी का अधिकांश हिस्सा इस घर को दे दिया, फ़िर भी ये घर उनका नही.मां के पास आज भी इस प्रश्न का उत्तर नही.क्या आप मुझे बताएंगे, कहां है मेरा घर?
नोट:
ये लेख समूची नारी जाति की स्थिति का चित्रण करता है.आप और मैं, बेशक इस दायरे में ना आते हों परन्तु हममें से अधिकांश स्त्रियां आज भी इस सवाल से जूझ रही है.ये हर पीढी की नारी का सवाल है.
"कहां है मेरा घर?"
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रंजू ranju said...
सही लिखा है आपने ..एक लड़की जब जन्म लेती है तो उसको कहना शुरू कर दिया जाता है कि अपने घर जायेगी एक दिन फ़िर वहाँ पहुच के पता चलता है कि यह तो पति देव का घर है पराये घर से आई है .....फ़िर वही घर बेटे का हो जाता है .:) बहुत पहले इस पर एक कविता लिखी थी कहीं दबी होगी डायरी के पन्नों में ..कि इस तरह हिन्दुस्तान में हर लड़की पराई है बेघर है ...नाम जरुर होता है कि घर बनता है घरवाली से पर नाम नही मिल पाता ...अपना घर एक सपना बन के रह जाता है ..:)
May 9, 2008 6:28 PM
anitakumar said...
सवाल तो जायज है पर हमारे पास कोई जवाब नहीं , किसी की भी मानसिकता को जबरदस्ती तो नहीं बदला जा सकता। जब अपने ही अपने न हुए तो दूसरों से क्या उम्मीद करना
May 9, 2008 6:49 PM
Anonymous said...
यह भ्रम है की औरते शोषीत है। भारत मे पुरुष को काम करना पडता है, खतरो से जुझना पडता है, समाज रुपी जंगल के थपेडो को सहना पडता है। ईतना ही नही एक मर्द की ईज्जत औरत के हाथ मे है। कोई औरत- अपनी या पराई किसी भी मर्द की इज्जत मिट्टी मे मिला सकती है। यह औरतो की दुनिया है दोस्तो। भ्रम फैला कर पुरुषो पर शाषण करने वाली महिलाओ से सावधान ।
हाँ, एक बात से सहमत हु, स्त्रीया अगर काम करेगी तो आर्थिक दृष्टी से शक्तीकृत होगी। जो भाषमान शोषन से उन्हे मुक्ती दिलाएगा ।
May 9, 2008 6:52 PM
Dr. Chandra Kumar Jain said...
सघर्ष तो है......समाधान की राहें
भी तो हो सकती हैं..... तलाश
जारी रहे....विकल्प के बदले
सकारात्मक संकल्प ज़रूरी है.
======================
प्रभावी पोस्ट.......बधाई.
May 9, 2008 7:13 PM
दिनेशराय द्विवेदी said...
सही यथार्थ आलेख। अधिकांश भारतीय परिवारों की स्थिति ऐसी ही है। न केवल भारत बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप में यही स्थिति है। हाँ, मूल्य बदल रहे हैं लेकिन गति धीमी है, जो महिलाओं के आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने से बढ़ेगी। अज्ञात जी के विचार से कतई सहमत नहीं। हाँ कहीं पुरुष ऐसा महसूस कर सकते हैं पर वे आधी आबादी के मुकाबले 0.001 प्रतिशत भी नहीं। अज्ञात जी, सनाम सामने आएं और खुली बहस में भाग लें। यहाँ किस का भय है।
यथार्थ को सुन्दर तरीके से अभिव्यक्त करने के लिए "इला" को बधाई।
May 9, 2008 8:13 PM
योगेन्द्र मौदगिल said...
विश्व भर में यही हाल लगता है. कुछ प्रतिशत अपवाद तो सदैव ही रहे हैं. मेरे ख्याल से तो समय के साथ चलना ही इसका प्रत्युत्तर है.
May 9, 2008 8:21 PM
सुनीता शानू said...
हम आज की नारी हैं बदलना हमे खुद से ही पड़ेगा...कहीं ऎसा न हो की जब हमारी अपनी बहू आये हम भी वही दोहरायें जो हमारे माता-पिता या हमारे सास-ससुर ने किया था...इसका बस एक मात्र ही विकल्प है हमें ही नई क्रांति लानी होगी...बहू और बेटी में जब तक फ़र्क रहेगा यह सिलसिला यूँ ही जारी रहेगा...
May 9, 2008 8:35 PM
रचना said...
नारी जीवन झूले की तरह
इस पार कभी उस पार कभी
May 9, 2008 9:04 PM
रचना said...
अज्ञात जी, सनाम सामने आएं और खुली बहस में भाग लें। यहाँ किस का भय है।
sahii kehaa haen dinesh ji nae
@Anonymous
aap ko kis kaa dar haen samvaad khulla , apna blog banaaye , apney naam sae wahaan likhaey
ham sab bhi aap ke vichaaro ko padhey
jo adhikaar aap ko is blog per kament kae rup mae milaa haen us adhikaar ko aap haemy bhi dae
यह औरतो की दुनिया है दोस्तो। भ्रम फैला कर पुरुषो पर शाषण करने वाली महिलाओ से सावधान ।
is prakaar kii warnng pursuh samaj ko bahut jyaadaa sachet kar daegee
!!!!!!!!!!!!!
May 9, 2008 9:09 PM
ila said...
धन्यवाद अनिताजी,रचना, रन्जूजी, मामाजी,डॊक्टर साहेब का,जो मेरे विचारों को सराहा.अनाम जी से तहेदिल से गुज़ारिश है कि वो खुली बहस में भाग लें, शायद आप अपवाद के रूप में नारी जाति के सताये हुए हैं.यदि आपकी बात में दम है तो सबूत के साथ आगे आयें,आपका बहस में स्वागत है.
May 9, 2008 9:20 PM
शोभा said...
इला जी
आप एकदम सही कह रही हैं। यह केवल आपकी नहीं , हम सब की कहानी है।
May 9, 2008 9:23 PM
mehek said...
ila ji,bahut hi satik sahi varnan kiya hai aapne,aaj bhi nari ka yahi haal hai,padhe likhe ho ya nahi isse koi farak nahi padhta,hume lagta hai iska ek hi solution hai swawalamban aur gharjamai lana,ladki ko dusre ghar bhejne se achha,ladke ko apne ghar le aaye,ladki ka naam badalne se achha,ladke ka surname badale,:);),ye to rahi hamari apni soch,shayad isse hone mein aur lakhon saal lag jaye,sochne mein kya bura hai ek din soch hi haqqiqat ban jayegi
jab tak hum apne man se ye klishta nahi mita sakte ki dusre ke beti apni bahu hai tab tak ye mansikta
Saturday, May 10, 2008
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4 comments:
Hi Di,
Ummm.. needless to say that the article was nothing short of being brilliant. The way you have potrayed the dilemna in a girl when she transforms from a kid to a girl to being a lady is fantastic. However, i would like to differ in more then one ways. Would like to provide more thoughts through my blog. :) this place would not be able to fit my thoughts in.. :)
Keep writing :)
regards
Tunnu
बचपन से स्त्रियों के मन में यह ठूंस ठूंस कर भर दिया जाता है, यह तुम्हारा घर नहीं है, तुम्हे पराये घर जाना है, तुम यह मत करो,. तुम वह मत करो... ज्यादा खी खी मत करो आदि आदि...
शायद यह बातें अवचेतन मन में बैठ जाती है और जब वह दादी, माँ या सास बनती है वह खुद अपनी पोती, बेटी या बहू से यही सब कहने लगती है।
इसका स्माधान शायद स्त्रियों के ही पास में है बचपन से ही लड़कों से वे सारे काम करवाने चाहिये जो लड़कियाँ करती है और लड़कियों को भी खेलकूदने की अनुमति देनी चाहिये। एक ना एक दिन यह फर्क मिटने लगेगा.. और लड़की बड़ी हो कर अपनी बेटी- बहू को यह सब नहीं कहेगी।
॥दस्तक॥
तकनीकी दस्तक
गीतों की महफिल
shayad ab aapke blog ko regularly visit karna padega hamein bhee,,,,,kya likhtee hain aap illa ji
बहुत सुन्दर 💕 आप वाकई बहुत अच्छा लिखती है...
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