Wednesday, August 13, 2008

आज़ादी के सही मायने

आज़ादी मिले हुए हमें ६० साल हो गये.कल स्वन्तत्रता दिवस की ६१वीं वर्षगांठ है.हम खुशनसीब हैं कि हम आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं,किन्तु यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या वास्तव में हम आज़ाद हैं ?चौंकिये मत,हमारे देश में हमें हर प्रकार की आज़ादी मिली हुई है,किसी को भी गाली देने की आज़ादी,किसी की भी पिटाई करने की आज़ादी,शराब पीकर गाडी चलाते हुए लोगों को कुचल देने की आज़ादी,क्रूरतापूर्ण हत्या करने की आज़ादी,मासूम बच्चियों/अबलाओं का बलात्कार करने की आज़ादी,गरीबों के शोषण की आज़ादी,कानून की धज्जियां उडाने की आज़ादी.कहां तक गिनाऊं,हम कितने आज़ाद हैं?
देखा जाये तो ६० वर्ष का मनुष्य हर तरह से परिपक्व हो जाता है,जवानी में की हुई गलतियों से सीख लेते हुए क्रमश: सुधार की ओर बढता है,किन्तु यदि हम अपने देश के विगत ६० वर्षों को देखें तो पता चलता है कि अभी तो अल्हडता इसकी रगों में बह रही है.हर क्षेत्र मे प्रगति करते हुए भी अभी हम खुशहाली से बहुत दूर हैं.देश के चरित्र का तो कहना ही क्या.देश चलाने वाले लोगों में ईमानदार लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं.भ्रष्ट और आपराधिक बैकग्राउण्ड वाले लोग हमारे देश को चला रहे हैं.इससे ज़्यादा दुर्भाग्य हमारे देश के गरीबों का क्या होगा कि सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिये उन्हें हर कदम पर रिश्वत देनी पडती है. हमारे देश का किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो गया है.स्कूल /कालेज में प्रवेश के लिये रिश्वत देते हुए छात्र के मन में यह बात घर कर जाती है कि कमाते वक्त मैं भी रिश्वत लूंगा.जो ईमानदार हैं,उन्हें ये सिस्टम लील जाता है.मै यहां कोई नयी बात नहीं कर रही हूं,सबको पता है. हमारे यहां "चलता है",ये दो शब्द हर भारत वासी के मन में अन्दर तक बैठ गये हैं,या बैठा दिये गये हैं.हम क्यूं हर गलत बात को स्वीकार कर लेते है,गलत को गलत कहने में और सही को सही कहने में हमारी ज़बान क्यूं लडखडाती है? हम किससे डरते हैं? हम अपने बच्चों को निडर बनना कब सिखायेंगे?
अभी तो हमें कई आयामों पर आज़ादी हासिल करनी है.अशिक्षा से आज़ादी,गरीबी और बेरोज़गारी से आज़ादी,सडी गली परंपराओं और कुरीतियों से आज़ादी,भ्रष्टाचार और बेइमानी से आज़ादी,सच बोलने की आज़ादी.हमारे दिलो दिमाग को हिंसा से आज़ादी कब मिलेगी? ब्रेनड्रेन से आज़ादी कब मिलेगी? कब विदेशों से पढ कर आने वाले छात्र अपने देश में नौकरी करने में गर्व महसूस करेंगे? हम सब डर से कब आज़ाद होंगे? "सब चलता है",इन तीन शब्दों से हमें आज़ादी कब मिलेगी ?
हम सभी यदि अपने स्तर पर आज़ादी की मुहिम चलायें तो मुझे यकीन है कि जब हम सब अपने बच्चों को आज़ादी का महत्व और सही मतलब समझाने में कामयाब हो जायेंगे,तो एक स्वतन्त्रता दिवस ऐसा भी आयेगा कि हमको तो तिरंगे पर नाज़ होगा ही,तिरंगा भी हम पर नाज़ करके इठलाता हुआ फ़हराएगा.जय हिन्द.

Monday, July 28, 2008

अब के सावन-------

बंगलोर और अहमदाबाद के दिल दहलाने वाले विस्फ़ोटों में अपनी जान और सब कुछ लुटा देने वालों के नाम यह श्रद्धांजलि दे रही हूं :




अब के सावन मेरे यहां बरखा नहीं बरसती,
अब के सावन फ़िज़ाओं में दहशतों की बारिश है

बादलों का शोर, बमों के शोर तले दब गया है
फ़ीकी पड गई है बिजुरी की कौंध,आगजनी की रोशनी में

अब के सावन मेरे यहां मल्हार के सुर नहीं बिखर रहे
बिखरा हुआ है तमाम शहर में, रोदन का शोर

खो गईं हैं बच्चों की किलकारियां,सावन की टीप
पसर गया है सन्नाटा,मासूमों की चीख

अब के सावन कोई बाहर भीगने नहीं जा रहा
भीगे हैं सबके नैन दहशत की बाढ में

Wednesday, July 16, 2008

कहाँ कहाँ बीमार ! !

एक महीने से ऊपर हो गया,अपने ब्लोग पर कुछ नहीं लिख पाई.कारण ममा की अस्वस्थता,जिसके चलते दिलोदिमाग दोनों ही साथ नहीं दे रहे.ममा पिछले ४ महीनों से बीमार हैं.मैने होश सम्भालने से लेकर अब तक उनको कभी बिस्तर पर लेटे नहीं देखा दिन के वक्त.चाहे कितनी भी शारीरिक पीडा हो, वो लेट कर आराम नहीं करती थी,अब आलम ये है कि बाथरूम तक जाने में भी उनको दिक्कत होती है.बीमारी भी ऐसी कि कोटा,जयपुर और दिल्ली के बडे चिकित्सक भी उनके न टूटने वाले बुखार का कोई कारण नहीं ढूढ पाये.हर प्रकार के टेस्ट हो गये,शरीर के सभी अंगो का सी.टी स्कैन हो गया, बोन स्कैन हो गया,सब कुछ नोर्मल.खैर इस सब के चलते चिकित्सा जगत के कई पहलुओं से अवगत हो गई.एक सुखद बात यह रही कि चिकित्सकों के बारे में जो लोगों की आम राय होती है वो निर्मूल सिद्ध हो गई.यह पता चला कि वो कितने समर्पित होते हैं अपने कार्य और मरीज़ों के प्रति.किस टेस्ट के कितने पैसे लगते हैं,कौन सा टेस्ट क्यों कराना है,किस टेस्ट की नोर्मल रेन्ज कितनी है सब पता चला.अब ममा का ट्रायल बेसिस पर इलाज शुरु हो गया है,६-७ चिकित्सकों की आम राय पर निर्धारित.खैर ईश्वर जानता है कि ममा को आराम कब आयेगा,अभी तो वो घोर कष्ट में हैं.पापा अकेले ही दौड-धूप कर रहे हैं और वो भी पूरे प्यार और संयम से.मेरे पास थे तो भी ममा को अकेले नहीं छोडते थे ,अब भी उन्हीं की नींद सोते हैं और उन्हीं की नींद जागते हैं.इस सब में ना वो भाई की मदद ले रहे हैं और ना ही मेरी.कब कौन सी दवा देनी है,कब सूप देना है, कब फ़ल काट के देना है, सब काम उन्होंने अपने ही हाथ में लिया हुआ है.ना झल्लाते हैं, ना थकान की शिकायत करते हैं,ऊपर से गज़ब ये कि सेन्स ओफ़ ह्यूमर बरकरार है.मैं यहां दिल्ली में बैठी हुई सिर्फ़ चिन्ता कर सकती हूं सो करती रहती हूं.अन्तरजाल पर पढ कर ममा की बीमारी के बारे में खोज बीन करती रहती हूं.
ममा की बीमारी के साथ ही मेरी चिन्ता का एक और कारण है.वो है मेरी काम वाली भागीरथी के बेटे की बीमारी.९ साल का रवि बीमारी के चलते ६ साल का दिखने लगा है.उसे भी बगैर किसी कारण के पिछले ४ महीने से बुखार आता है,सारी रिपोर्ट्स नोर्मल.किन्तु वो बच्चा पिछले १५ दिनों से कलावती सरन अस्पताल में भरती है.यह अस्पताल बच्चों का सरकारी अस्पताल है.जब मैं बीमार रवि को देखने अस्पताल गई तो पहली बार मेरा साबका सरकारी अस्पताल से हुआ.मैं अपने आप को काफ़ी कडक दिल मानती हूं किन्तु यहां आकर मेरी रूह कांप गई.अस्पताल के अंदर कदम रखते ही मेरी नाक का स्वागत बदबू के भभके ने किया.इस गन्ध में दवा,पेशाब,पसी्ने,गन्दगी,फिनायल सभी मिले हुए थे. फ़र्श पर गन्दगी के चकत्ते,जगह जगह कचरा.सबसे पहला खयाल आया ,इतनी बदबू में कौन मरीज यहां से ठीक हो कर जाता होगा.खैर थोडा आगे बढने पर एक कोने में भीड दिखी,ये भीड मरीजों की नहीं,सरकारी मुलाजिमों की थी जो वहां कोई आंदोलन छेडे बैठे थे,एक छुटभैया नेता कुर्सी पर खडा होकर जोर जोर से नारे लगा रहा था,इस बात से बेखबर कि नन्हे मरीज़ों को कितना कष्ट हो रहा होगा यह शोर सुन कर.दो मंज़िल सीढी चढ कर एक लम्बे गलियारे में कदम रखती हूं,दोनों तरफ़ मातायें अपने बीमार बच्चों को लेकर बैठी हुई है.हर तरफ़ बीमार बच्चे हैं,ज़्यादातर के हाथों में कैन्यूला लगी है.हे भगवान इतने नन्हे बच्चों को इतनी पीडा और बीमारी कयूं दी आपने? लगता है कि दुनिया का हर बीमार बच्चा यहीं पर आ गया है.सब तरफ़ बेबसी और दर्द फ़ैला है.एक चीज़ है जिसने सभी को एक साथ जोडे रखा है, वो है उम्मीद.हर एक का दर्द सबका दर्द है और हर एक की छोटी से खुशी भी यहां सब की खुशी बन जाती है.हम सब को यहां से कुछ सीखना चाहिये.आम ज़िन्दगी में हम सब ने अपने अपने दायरे बना रखे हैं.यहां किसी का अपना कोई दायरा नहीं. जिस क्यूबिकल में भागीरथी का बच्चा भरती है,वहा तक पहुंच तो जाती हूं किन्तु बाहर ही ठिठक जाती हूं.एक छोटे से कमरे में कुल चार बिस्तर लगे हैं,एक एक बिस्तर पर चार चार बच्चे लेटे हुए हैं,साथ में उनके अभिवावक भी हैं.जब तक रवि का बिस्तर ढूंढूं,लाइट चली गई है.वातावरण एकदम घुटा हुआ हो रहा है,हवा स्तब्ध है.गर्मी के कारण ज्यादातर बच्चे रोने लगे हैं.बदबू भी पूरा जोर लगा रही है किन्तु अब तक नासिका को आदत हो गई है इसे झेलने की.अब समझ आता है कि सभी चिकित्सक,नर्स और वार्ड-बाय इतने आराम से इस बदबू भरे वातावरण में आराम से कैसे घूम रहे हैं.ज़ाहिर तौर पर उनकी नासिका पर बदबू का कोई जोर नहीं चलता,उन्हें आदत हो गई है इस घुटन की, इस बदबू की.१० मिनट में लाइट आ गई है.मैं अपने आप को कमरे में ठेल देती हूं.रवि दूसरे नम्बर के बिस्तर पर दिख जाता है,वो आंखें बन्द कर के चुपचाप लेटा हुआ है.मुझे देखते ही अकसर खिल जाने वाला रवि आज निस्तेज है.बक बक कर के मेरा दिमाग खा जाने वाला रवि आज चुप है.एक समय था जब हंसी और शरारत उसकी शक्ल से चस्पा रहती थी,आज ना शरारत है,ना मुस्कुराहट है.एक ही जिद,घर ले चलो.उसके लिये फ़ल लाई थी,उसे अनार पसंद है,वो नही खाना चाहता.भागीरथी ने थैले से फ़ल निकाल कर साथ में लेटे हुए बच्चों को बांटने शुरु कर दिये.शुक्र है ज़्यादा फ़ल और बिस्किट ले गई थी ,कमरे के सभी बच्चों में कम नहीं पडे.रवि को और अन्य बच्चों को बात चीत कर के हंसाने का असफ़ल प्रयास करती हूं.इतने में कई अपढ माता पिता अपना अपना पर्चा ले कर सामने खडे हो गये हैं,कोई कुछ पूछ रहा है,कोई कुछ.सब के पर्चे पढ पाने में,समझ पाने में खुद को असमर्थ पाती हूं.भागीरथी सबको बताती है, ये दीदी डाक्टर नहीं है.बमुश्किल एक घण्टा गुजरा है कि जाने का समय हो गया है,पुपुल को स्कूल से लेना है और उसका स्कूल नोएडा में स्थित है.रवि से फिर आने का वादा करके लौट रहीं हूं.सलाम करती हूं उन चिकित्सकों और नर्सों को जो इन नन्हे मरीज़ों को अच्छा कर के घर भेजते हैं.दिल भारी भारी है,कई सवाल मन को मथ रहे हैं,इन सरकारी अस्पतालों में सफ़ाई क्यूं नही रह पाती जबकि इतने सारे सफ़ाई कर्मचारी नियुक्त हैं,अस्पताल और बडे क्यूं नही हो सकते जिस से एक एक बिस्तर पर ३-४ मरीज़ ना रहें,एक दूसरे का संक्रमण ना फ़ैले.ईश्वर ने मासूम बच्चों को ही क्यूं चुना दर्द देने के लिये? प्रश्न कई हैं किन्तु उत्तर नहीं खोज पा रही हूं.किसी दिन शायद किसी सवाल का जवाब मिले ------.इन्शा अल्लाह !!

Thursday, June 5, 2008

मातम-पेट्रोल और रसोई गैस के बढते हुए दाम का

पेट्रोल और रसोई गैस के बढते हुए दाम कल आम जनता की ज़बान पर थे.संयोग से कल किसी के यहां डिनर पर जाना हुआ.१०-१२ लोगों का जमावडा था वहां.सब के सब व्यापारी,उच्च वर्ग से ताल्लुक रखने वाले.हाथ में पेय लिये,महंगे स्नैक्स खाते हुए सब ही पेट्रोल के बढे हुए दाम का मातम मना रहे थे. एक से बढ कर एक कमेण्ट आ रहा था इस विषय पर.एक महिला बोली अब तो किट्टी में कार पूल बना कर जाना पडेगा किन्तु इससे स्टेटस की किरकिरी हो जाएगी.एक का कहना था, कि हम दूसरी गाडी भी लक्जरी कार ही लेना चाह्ते थे पर अब छोटी गाडी ही खरीदनी पडेगी बच्चों के लिये.मेरे बच्चों का तो मूड खराब हो गया है.मैं चुप थी,सबकी सुन रही थी.जैसे जैसे शाम का सरूर बढ रहा था,मातम का लेवल भी बढ रहा था.कोई सरकार को गाली दे रहा था, कोई जोर्ज बुश को.किसी ने इरान -इराक की मलामत की तो किसी ने राजनीति की.मुझ से भी इस विषय पर राय मांगी गई तो मैने आदत के मुताबिक मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के लोगों की परेशानी व्यक्त कर दी.जिस गरीब के यहां ५-७ सदस्यों का सुबह शाम खाना बने और मासिक आय ५ हज़ार भी ना हो तो वो बढे हुए दामों पर गैस कैसे खरीद पाएगा? जो काम वालियां और मज़दूर ५-६ किलोमीटर से औटो या बस पकड कर काम पर आते हैं, वो बढे हुए किराये का सामना कैसे कर पाएंगे? उनकी कमाई तो बंधी हुई नही है.क्या हम अपने यहां काम करने वाले लोगों की तनख्वाह बढाने को राज़ी हैं? मध्यम वर्ग तो सदा ही पिटता चला आया है, वो और कितना पिटेगा? परिवार की छोटी छोटी ख्वाहिशें कैसे पूरी करेगा? मानती हूं सरकार के पास कोई ठोस विकल्प नहीं है.लेकिन इन्फ़्लेशन कब तक अजगर के मुंह की तरह बढेगा? खैर मेरे इस लेख का असली मुद्दा (महत्वपूर्ण होते हुए भी) यह नही है. मुझे हंसी आ रही थी मेरे तथा कथित मित्रों पर जो मेरी बार सुन कर बोले, अरे,गरीबों का कुछ नहीं बिगडता, वो तो पहले भी रोते थे, अब भी रो रहे हैं और हमेशा ही रोएंगे.उनकी परेशानी तो उनकी अपनी बनाई हुई है,किसने कहा था ढेर सारे बच्चे पैदा करने को, अब बडा परिवार है तो मुसीबत भी बडी होगी.रही मध्यम वर्ग की बात,वो तो कैसे न कैसे इस समस्या से उबर ही जाएगा.असल परेशानी में तो हम जैसे लोग हैं,लाइफ़ स्टाइल मेन्टेन करना बहुत भारी काम है.मु्झे इन बातों को सुन कर हंसी आ रही थी.ये वो लोग बोल रहे हैं जिनको अपनी आय का ओर छोर नहीं पता.मांएं अपने नन्हे बच्चों के लिये १५ रु प्रति नग के ५ -८ डिस्पो्जेबल डायपर रोज़ाना लगा देती हैं जिससे उनकी नीन्द और आराम में खलल ना आये, वो आराम से शौपिन्ग कर पायें, पार्टी में बगैर किसी व्यवधान के घूम पायें.जब किसी के बच्चे को आइसक्रीम का खास फ़्लेवर पसंद ना आये तो उसे फ़ेंक कर दूसरी आइसक्रीम खरीदने में देर नहीं लगती.एक ड्रेस मन से उतर जाय तो उसकी जगह नयी पोशाकें खरीदने में पलक नहीं झपकती.एक मौल से दूसरे मौल जाने में कितना पेट्रोल खर्च करती होंगी, इसका उन्हें कोई अन्दाज़ा ही नही.साहब लोग महंगी शराब की एक बोतल खरीद कर अपनी एक शाम का मनोरंजन कर लेते हैं, इतने में एक गरीब महीने भर का राशन खरीद सकता है.मैं अच्छे रहन सहन के खिलाफ़ नही हूं.मुझे शिकायत है लोगों की संवेदनहीनता से,उनकी छोटी सोच से.कब तक हम सिर्फ़ अपने ही बारे में सोच कर जी्ते रहेंगे.कब हम समाज के कमज़ोर वर्ग के बारे में सोचना शुरु करंगे? कब हम अपने स्तर पर कोशिश शुरु करेंगे,देश में बदलाव लाने की?अब समय आ गया है कि हम सब होश में आयें,जागें और देश के घटते मूल्यों को सम्भालने में अपना योग दान दें.अपने बच्चों को सिखायें कि अपनी जीवन शैली में छोटे छोटे बदलाव लाके हम देश में बहुत बडा बदलाव ला सकते हैं.यदि हम आज नहीं जागे तो कल आने वाली पीढियां हम को कोसेंगी.ITS TIME WE WOKE UP !!!

Sunday, June 1, 2008


आज इतवार की दोपहर को बहुत दिनों बाद पतिदेव और पुपुल के साथ बाहर खाने का प्रोग्राम बना.मौ्का था,पुपुल के टेन्थ बोर्ड अच्छे अंकों से पास करने का.सुबह मौसम ने अच्छी शुरुआत की थी किन्तु घर से निकलते ही कडी धूप और चिपचिपी गर्मी ने हमारे उत्साह को थोडा कम कर दिया.खैर हम लोग कना्ट प्लेस स्थित शरवन भवन पहुंचे.दिल्ली के बाशिन्दे इस जगह को खूब पहचानते होंगे.यह रेस्टोरेन्ट दक्षिण भारतीय खाने के लिये प्रसिद्ध है.बाहर भारी भीड थी.१५ मिनट की वेटिंग के दौरान मैं अपने प्रिय काम में लग गई.अरे, कोई खास काम नहीं, यही आते जाते लोगों को देखना.मेरी नज़र एक परिवार पर पडी,जिसमें एक वृद्धा, एक वृद्ध,एक अधेड उम्र की महिला और दो १०-१२ वर्ष के दो बच्चे.अमूमन छुट्टी वाले दिन ऐसे दृश्य काफ़ी दिख जाते हैं.फ़िर इस परिवार में ऐसा क्या था जो मुझे आकर्षित कर रहा था.खास बात थी उस वृद्ध दंपत्ति की उम्र में.दोनों ही पति-पत्नी ८० पार थे और जिस प्रकार से उन वयोवृद्ध महिला ने अपना हाथ उन वृद्ध के हाथ में दे रखा था,वो देखने लायक था.ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने अपना समूचा विश्वास अपने पति के हाथ में दे रखा था.पति ने अपनी पत्नी का हाथ ऐसे थाम रख था जैसे वो कोई छोटी सी बच्ची हो.पत्नी को पूरी तरह सम्भाल के आगे बढ रहे थे वो, धीरे धीरे कदम बढाते. प्रेम,समर्पण और विश्वास से भरा यह दृश्य मेरी आंखों में आंसू ले आया.ईश्वर से उसी समय उनके इस साथ को बनाये रखने की प्रार्थना की.तारीफ़ उनके परिवार के नन्हे सद्स्यों की भी है कि वो बहुत ही प्यार और अपनेपन से अपने बुजुर्गों के साथ वक्त बिता रहे थे.वर्ना आज के समय में, वो भी दिल्ली जैसे शहर में बुजुर्गों को खाने पर बाहर ले जाने की भला कौन सोचता है? मन से उन बच्चों और उनकी मां के लिये भी ढेर सारा भाव जागा.ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हमारे देश में ज़्यादा से ज़्यादा लोग अपने बडों के साथ प्यार और सम्मान के साथ पेश आयें,ताकि उनके आशीर्वाद से वो आगे बढते हुए भी अपने संस्कारों को याद रखें.

Saturday, May 10, 2008

"कहां है मेरा घर?"

मै एक नारी हूं.बचपन से ही सुनती आयी हूं, नारी देवी के समान है.जब छुटपन में नवरात्रों की अष्टमी- नवमी के दिन कन्या के रूप में बुला कर पैर पूजे जाते थे, पैसे और उपहार दिये जाते थे तो सच में मुझे अपने लडकी होने पर बेहद गर्व होता था.लेकिन जब धीरे-धीरे बडी होने लगी तो ये अह्सास दिलाया जाने लगा कि तुम लडकी हो, तुम्हें पराये घर जाना है, ये करो, ये मत करो.देखती थी भाई को कहीं आने जाने की रोक टोक नहीं थी, बस मुझे अकेले कहीं आने जाने की इज़ाज़त नही थी.शुरु से ही वाचाल थी, इसलिये हमेशा दादी कहती थी, यहां ये बातूनीपन बन्द कर, अपने घर जाकर बातें बना के देखना, तेरे घर वाले तुझे ठीक कर देंगे.मेरा बालमन अचरज से भर जाता, ये ही तो मेरे घर वाले हैं, और कहां से आयेंगे.कभी भी कुछ अपनी मर्ज़ी से करती, तो सुनने को मिलता यहां तुम्हारी मर्ज़ी नहीं चलेगी, अपने घर जाकर जो करना हो करना.भाई से कभी कोई ऐसी बात नहीं करता था,क्यों ? स्कूल की पढाई खत्म हो गई, दादी ने पापा को समझाया, अब इसे घर गृहस्थी के काम सिखाएंगे, नहीं तो ये अपना घर कैसे चलायेगी? मुझे कभी समझ नहीं आया, ये मेरा घर क्यों नहीं है? यहां मैने जन्म लिया है, यहां मैं बडी हुई हूं, फ़िर ये मेरा घर कैसे नही? जो भाई को स्वतन्त्र्ता मिली हुई है, वो मुझे कब मिलेगी ? मैने स्थिति से समझौता कर लिया. धीरे धीरे,कॊलेज की पढाई करते हुए आंखों में रंगीन सपने तैरने लगे, अपने घर के.जब बात शादी की चली तो सब की राय ली गई, (छोटे भाई की भी), मेरे सिवा.फिर मेरी शादी हो गई.
मन में उत्साह था, अपने घर संसार की शुरुआत करने का.जिस तरह के पर्दों की बचपन से तमन्ना थी, अब वैसे ही अपने घर में लगाऊंगी, बाहर बाल्कनी में गमले खुद ही पसंद करून्गी. वहां तो दादी नींबू, गुलाब और मोगरे से आगे ही नहीं बढने देती थी.और हां, अब अपने हिसाब से ही कपडे पहनूंगी,वहां तो भाई जीन्स या स्कर्ट को हाथ भी नहीं लगाने देता था.ससुराल में कदम रखते ही सास बोली, "देखो बहू,यहां तुम्हे सब का लिहाज़ करना होगा.सबकी पसन्द के हिसाब से रहना होगा".सिर झुका कर सुन लिया.मैं खुद भी खुश रहना चाहती थी, सबको भी खुश रखना चहती थी.जब पहली बार सोकर उठने में देर हुई तो सास बोली , ये तुम्हारा घर नही है, जहां जब जी आया उठ गये,सुबह जल्दी उठने की आदत डालो. पति के साथ बाहर जाते वक्त जीन्स पहन ली तो सब की भृकुटी तन गयी.पति ने आंख तरेर कर कहा, ये सब अपने घर में पहन चुकी हो, यहां तो मेरे और परिवार की पसंद से कपडे पहनो.घर की सजावट में फ़ेरबदल करनी चाही तो सुनने को मिला, ये तुम्हारा घर नहीं जहां जब जो जी में आया हटा दिया, जो जैसा है वैसा ही रहने दो.ननद की शादी तय करते वक्त भी मेरी राय नहीं ली गई, बिन मांगे देनी चाही तो कहा गया, अपनी राय अपने घर वालों के लिये रखो, हमें निर्णय लेने की समझ है.अब मैं बैठी सोच रही हूं ,मेरा घर है कहां? है भी या नहीं? आज याद आया शादी के ३० साल बाद भी मां को दादी से यही सुनने को मिलता है जो मैं सुनती आयी हूं.मां ने अपनी ज़िन्दगी का अधिकांश हिस्सा इस घर को दे दिया, फ़िर भी ये घर उनका नही.मां के पास आज भी इस प्रश्न का उत्तर नही.क्या आप मुझे बताएंगे, कहां है मेरा घर?
नोट:
ये लेख समूची नारी जाति की स्थिति का चित्रण करता है.आप और मैं, बेशक इस दायरे में ना आते हों परन्तु हममें से अधिकांश स्त्रियां आज भी इस सवाल से जूझ रही है.ये हर पीढी की नारी का सवाल है.
"कहां है मेरा घर?"

13 Comments - Show Original Post

Collapse comments


रंजू ranju said...
सही लिखा है आपने ..एक लड़की जब जन्म लेती है तो उसको कहना शुरू कर दिया जाता है कि अपने घर जायेगी एक दिन फ़िर वहाँ पहुच के पता चलता है कि यह तो पति देव का घर है पराये घर से आई है .....फ़िर वही घर बेटे का हो जाता है .:) बहुत पहले इस पर एक कविता लिखी थी कहीं दबी होगी डायरी के पन्नों में ..कि इस तरह हिन्दुस्तान में हर लड़की पराई है बेघर है ...नाम जरुर होता है कि घर बनता है घरवाली से पर नाम नही मिल पाता ...अपना घर एक सपना बन के रह जाता है ..:)

May 9, 2008 6:28 PM


anitakumar said...
सवाल तो जायज है पर हमारे पास कोई जवाब नहीं , किसी की भी मानसिकता को जबरदस्ती तो नहीं बदला जा सकता। जब अपने ही अपने न हुए तो दूसरों से क्या उम्मीद करना

May 9, 2008 6:49 PM


Anonymous said...
यह भ्रम है की औरते शोषीत है। भारत मे पुरुष को काम करना पडता है, खतरो से जुझना पडता है, समाज रुपी जंगल के थपेडो को सहना पडता है। ईतना ही नही एक मर्द की ईज्जत औरत के हाथ मे है। कोई औरत- अपनी या पराई किसी भी मर्द की इज्जत मिट्टी मे मिला सकती है। यह औरतो की दुनिया है दोस्तो। भ्रम फैला कर पुरुषो पर शाषण करने वाली महिलाओ से सावधान ।

हाँ, एक बात से सहमत हु, स्त्रीया अगर काम करेगी तो आर्थिक दृष्टी से शक्तीकृत होगी। जो भाषमान शोषन से उन्हे मुक्ती दिलाएगा ।

May 9, 2008 6:52 PM


Dr. Chandra Kumar Jain said...
सघर्ष तो है......समाधान की राहें
भी तो हो सकती हैं..... तलाश
जारी रहे....विकल्प के बदले
सकारात्मक संकल्प ज़रूरी है.
======================
प्रभावी पोस्ट.......बधाई.

May 9, 2008 7:13 PM


दिनेशराय द्विवेदी said...
सही यथार्थ आलेख। अधिकांश भारतीय परिवारों की स्थिति ऐसी ही है। न केवल भारत बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप में यही स्थिति है। हाँ, मूल्य बदल रहे हैं लेकिन गति धीमी है, जो महिलाओं के आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने से बढ़ेगी। अज्ञात जी के विचार से कतई सहमत नहीं। हाँ कहीं पुरुष ऐसा महसूस कर सकते हैं पर वे आधी आबादी के मुकाबले 0.001 प्रतिशत भी नहीं। अज्ञात जी, सनाम सामने आएं और खुली बहस में भाग लें। यहाँ किस का भय है।
यथार्थ को सुन्दर तरीके से अभिव्यक्त करने के लिए "इला" को बधाई।

May 9, 2008 8:13 PM


योगेन्द्र मौदगिल said...
विश्व भर में यही हाल लगता है. कुछ प्रतिशत अपवाद तो सदैव ही रहे हैं. मेरे ख्याल से तो समय के साथ चलना ही इसका प्रत्युत्तर है.

May 9, 2008 8:21 PM


सुनीता शानू said...
हम आज की नारी हैं बदलना हमे खुद से ही पड़ेगा...कहीं ऎसा न हो की जब हमारी अपनी बहू आये हम भी वही दोहरायें जो हमारे माता-पिता या हमारे सास-ससुर ने किया था...इसका बस एक मात्र ही विकल्प है हमें ही नई क्रांति लानी होगी...बहू और बेटी में जब तक फ़र्क रहेगा यह सिलसिला यूँ ही जारी रहेगा...

May 9, 2008 8:35 PM


रचना said...
नारी जीवन झूले की तरह

इस पार कभी उस पार कभी

May 9, 2008 9:04 PM


रचना said...
अज्ञात जी, सनाम सामने आएं और खुली बहस में भाग लें। यहाँ किस का भय है।
sahii kehaa haen dinesh ji nae

@Anonymous

aap ko kis kaa dar haen samvaad khulla , apna blog banaaye , apney naam sae wahaan likhaey
ham sab bhi aap ke vichaaro ko padhey
jo adhikaar aap ko is blog per kament kae rup mae milaa haen us adhikaar ko aap haemy bhi dae
यह औरतो की दुनिया है दोस्तो। भ्रम फैला कर पुरुषो पर शाषण करने वाली महिलाओ से सावधान ।
is prakaar kii warnng pursuh samaj ko bahut jyaadaa sachet kar daegee
!!!!!!!!!!!!!

May 9, 2008 9:09 PM


ila said...
धन्यवाद अनिताजी,रचना, रन्जूजी, मामाजी,डॊक्टर साहेब का,जो मेरे विचारों को सराहा.अनाम जी से तहेदिल से गुज़ारिश है कि वो खुली बहस में भाग लें, शायद आप अपवाद के रूप में नारी जाति के सताये हुए हैं.यदि आपकी बात में दम है तो सबूत के साथ आगे आयें,आपका बहस में स्वागत है.

May 9, 2008 9:20 PM


शोभा said...
इला जी
आप एकदम सही कह रही हैं। यह केवल आपकी नहीं , हम सब की कहानी है।

May 9, 2008 9:23 PM


mehek said...
ila ji,bahut hi satik sahi varnan kiya hai aapne,aaj bhi nari ka yahi haal hai,padhe likhe ho ya nahi isse koi farak nahi padhta,hume lagta hai iska ek hi solution hai swawalamban aur gharjamai lana,ladki ko dusre ghar bhejne se achha,ladke ko apne ghar le aaye,ladki ka naam badalne se achha,ladke ka surname badale,:);),ye to rahi hamari apni soch,shayad isse hone mein aur lakhon saal lag jaye,sochne mein kya bura hai ek din soch hi haqqiqat ban jayegi
jab tak hum apne man se ye klishta nahi mita sakte ki dusre ke beti apni bahu hai tab tak ye mansikta

Friday, May 2, 2008

पडोस

इसा मसीह कह गये हैं"लव दाई नेबर्स’,यानि पडोसी से प्रेम करो.आज के चिट्ठे में मैं इसी विषय पर बात कर रही हूं.१७ सालों से पतिदेव के साथ साथ विभिन्न शहरों की रज चख चिकी हूं .जगह जगह पडोसी मिले,अच्छे बुरे सभी तरह के.कई ऐसे भी मिले जिनकी स्मृति कभी विलग नहीं होती.नयी नयी शादी हुई थी जब हम दोनों अजमेर शहर पहुंचे.छोटा सा सुन्दर शहर, अच्छे लोग और सबसे मज़े की बात कि पडोस में ही मेरी सबसे प्रिय सहेली नीता और उसका परिवार रहते थे, जिन्होंने हमें वहां बसने में हर तरह की मदद की. बहर हाल जिस घर में हम किराये पर रहने के लिये गये, वहां हमारे मकान मालिक ही हमारे पडोसी थे.उनके लगभग ६ बच्चे थे,लगभग इसलिये कि १.५ वर्ष में मैं उनके पूरे परिवार को एक साथ नहीं देख पाई.इस परिवार की खास बात ये थी कि सबकी अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग था उन्हें इस बात से कोई फ़र्क नहीं पडताथा कि कोई उनके यहां किराये से भी रहता था.ना मकान मालकिन कभी बात करने आयीं, ना उनके बच्चे. हां, शर्माजी जरूर बहाने से हमारे घर आकर मुझे एक कामयाब पत्नी बनने के, पति को मुट्ठी में बनाये रखने के टिप्स देते रहते थे.
एक पडॊसिन मुझे दिल्ली की याद आती है,जो अति मितव्ययी थी. उन्हें कंजूस कहना अशिष्टता होगी.वो बहुत ही सा्धारण तरीके से अपना जीवन यापन करती थी किन्तु शान में कोई कमी नहीं थी.जब भी उनका भतीजा उनसे मिलने आता, वो हमारे यहां चली आती और कहती,भतीजा कौफ़ी मांग रहा है,हम तो कौफ़ी पीते नहीं, तुम थोडी सी दे दो." मैं अच्छे पडोसी का फ़र्ज़ निभाते हुए उन्हें कौफ़ी पकडा देती. हद तो तब हो गई जब एक दिन उन्होंने कहा, "भतीजा आया है".ये सुनते ही आदत के मुताबिक मैने रसोई की ओर प्रस्थान किया तो बोली,"रोज़ रोज़ कौफ़ी मांगना अच्छा नहीं लगता,ऐसा करो वो अभी सो रहा है,तुम कौफ़ी बना कर ही दे दो,उसे क्या पता लगेगा." मैं अवाक.कभी उनको सर में मेंहन्दी लगानी होती तो कौफ़ी मांग लेती.कभी यानी महीने में सिर्फ़ ४ बार.कुल मिला कर स्थिति यह हो जाती कि हमारी महीने भर के लिये लाई गई कौफ़ी उन्हीं पर कुर्बान हो जाती.दूसरी चीज़ वो मांगती थी, अमचूर की खटाई.कहती,"भई,हम तो गला खराब होने के डर से कभी खटाई घर में नहीं लाते, पर क्या करें आज करेले/भरवां भिन्डी बनायी है, खटाई दे दो.वो महीने भर में ७-८ दफ़े खटाई वाली सब्ज़ी बनाती और बेचारा अमचूर हमारा शहीद होता और हां,हमारे अमचूर से उनका गला कभी खराब नहीं होता.एक उनको सिलाई का बेहद शौक था, किन्तु धागे कौन खरीदे.मैं सिलाई करने में निपट अनाडी, किन्तु रंगबिरंगे धागे इकट्ठे करने की शौकीन थी.बस फ़िर क्या था,आ कर कहती"तुम्हारे यहां तो धागे बेकार पडे हुए हैं, लाओ फ़लाने रंग का धागा दे दो." इस प्रकार उन्होने हमारे धागे का कलेक्शन खत्म कर के ही दम लिया.मैने भी फिर और धागे लाने से तौबा कर ली.अब पडोसी से तौबा तो नहीं कर सकते ना.
मेरी आदत है कि जब कोई नया पडोसी आता है, तो उन्हें मदद के लिये पूछ लेती हूं.इस से मेरा और उनका जीवन भर के लिये रिश्ता बन जाता है.एक बार एक नये पडोसी मेरे साथ वाले घर में रहने के लिये आये तो मैने आदतन उनसे संपर्क किया.उन महिला ने मुझे घर में बुलाये बगैर ही, सर से पैर तक घूरा जैसे मैं कोई सेल्सगर्ल हूं,फ़िर बेहद रूखेपन से बोली,"देखो लल्लोचप्पो कर के मेरे हस्बैण्ड की बडी पोस्ट का फ़ायदा उठाने की कोशिश मत करो, ना हम किसी से दोस्ती करते हैं और ना ही किसी को अपना दोस्त बनाते हैं". मुझे आज तक नहीं पता कि उनके हस्बैण्ड की पोस्ट कितनी बडी है और उससे क्या फ़ायदा उठाया जा सकता है.ऐसी ही एक नयी पडोसिन को हमने उनके सामान जम जाने तक उनके ८ माह के बेटे को संभालने का आश्वासन दिया.उन्हें सामान जमाये हुए १ साल बीत गया है किन्तु उनका बच्चा हमारे यहां परमानेन्टली जम गया है.वो सिर्फ़ सोने औए नहाने के लिये ही हमारे घर से जाता है.सब मुझे एक के बजाये दो बच्चों की मां समझते हैं और आश्चर्य करते हैं,अरे ! दो बच्चों में १४ साळ का गैप? अब मुझे बताइये,मैं क्या करूं? अच्छी पडोसी बनी रहूं या----???

Tuesday, April 22, 2008

अम्मा

हमारी सोसायटी में कोई दो साल हुए एक परिवार आकर बसा.पति-पत्नी, ५-७ वर्ष का एक बेटा और एक अदद नौकर.पति-पत्नी दोनों नौकरी पेशा थे, इस कारण कभी कभार लिफ़्ट में ही उनसे हेलो-हाय हो जाती थी.पत्नी का व्यवहार मेरे प्रति काफ़ी सौम्य था, एक आध बार मेरे घर भी चली आयी थी चाय पीने.बेटा अक्सर मेरे पास समय बिताने चला आता था क्यूंकि मेरे पास मछलियां,कुत्ता,कछुआ आदि पालतू सदस्य हैं जो बच्चों को स्वाभाविक रूप से आकर्षित करते हैं. तब हमारे पास तोता भी हुआ करता था.वो अन्य छोटे बच्चों के साथ मेरे घर आकर,खेल कर चला जाता था.बस इतना ही परिचय था हमारा उनसे. एक दिन मैं लिफ़्ट के पास खडी लिफ़्ट का इन्तज़ार कर रही थी कि वो मुझे दिखीं.भरी दुपहरी में ये वृद्धा यहां क्यूं टहल रही है?मेरे मन में स्वाभाविक सवाल उठा. फ़िर उनकी कद काठी पर नज़र गई.वो कुल जमा ४ फ़ुट की, झुकी हुई कमर लिये, क्षीणकाय महिला थी.मोटी, सफ़ेद किन्तु मटमैली साडी पहन रखी थी.पके हुए बाल बेतरतीबी से एक चिन्दी से बांधे हुए थे. आंखों पर बहुत ही मोटा चश्मा चढा था, हाथ में एक बेंतनुमा लकडी थी.बचपन से ही बूढे लोग मुझे भाते हैं, सो मैंने झुक कर उनके पैर छुए और पूछा,"अम्मा, इस वक्त आप यहां क्यूं टहल रही हैं, कौन से फ़्लैट में रहती हैं"? उन्होंने एक फ़्लैट की तरफ़ इशारा किया तो मैं चौंक गई, ये तो वही घर था जहां से वो बच्चा मेरे घर खेलने आता है.कभी किसी ने बताया ही नहीं था कि कोई वृद्धा भी उस घर में रहती है.खैर उस दिन परिचय स्थापित हो गया और मेरी अक्सर उनसे मुलाकात होने लगी किन्तु बडे ही अजीबोगरीब वक्त पर, खास तौर से तब जब कोई बच्चा या बूढा बाहर नहीं निकलता था.एक दिन मैने उनसे जब इसका कारण पूछा तो बोली, "मेरे तीन बेटे हैं, दो बडे बेटे मुझे अपने पास रखने में असमर्थ हैं, क्यूंकि उनके घर छोटे हैं और बच्चे बडे हो गये हैं. य़े मेरा सबसे छोटा बेटा,कम्पनी के दिये बडे घर में रहता है,इसके पास छोटे घर का बहाना नहीं है इसलिये मुझे पास रखना इसकी मजबूरी है, इसका बच्चा भी छोटा है, सो बहू की भी मदद हो जाती है.वैसे घर में फ़ुल टाइम नौकर है, जो सब कुछ सम्भाल लेता है." मैने गौर किया कि वो डरी डरी सी लिफ़्ट के पास देखती रहती हैं, और नीचे भी झांकती रहती है.इस चक्कर में एक दिन उनका बैलेन्स बिगड गया और वो मेरे सामने ही गिरते गिरते बचीं.मैने एकदम से उनको सम्भाल लिया तो उनकी आंखों में आभार के आंसू उमड आये, बोलीं"आज अगर मुझको कुछ हो जाता तो मेरा बाहर निकलना बिलकुल बन्द हो जाता." जब मैने इसका कारण पूछा तो रुन्धे गले से बोली, "हमको तो घर से बाहर निकलना कतई अलाउड नहीं है.हम तो चुपके से तब बाहर निकलते हैं जब नौकर घर से बाहर सामान या सब्ज़ी-भाजी लेने निकला हो, पोता स्कूल में होता है या खेलने गया होता है.हम इसीलिये तो लगातार नीचे झांकते रहते हैं कि कोई आकर हमें बाहर घूमता ना पकड ले.हमारी बहू को हमारा घर से बाहर निकल कर इस उस से बतियाना बिलकुल पसन्द नहीं है. वो सोचती है कि हम सबसे उसकी बुराई करेंगे" मै तो यह सुन कर अवाक रह गई.अब तो उनका दर्द शब्दों में ढल-ढल कर बाहर आ रहा था.कहने लगीं, "दिन में नौकर टीवी नहीं देखने देता, स्कूल से आकर पोता अपने कार्टून चैनल देखता है, शाम को बेटे-बहू की पसन्द से टीवी के कार्यक्रम देखते हैं.मैं कितनी देर तक किताबें पढूं.आंखों में मोतिया उतर आया है,पढने में तकलीफ़ होती है.पेन्शन के पैसे से अलग टीवी लेने की बात उठाई तो घर में भूचाल आ गया,क्यूंकि पेन्शन के पैसे की आर.डी खोल रखी है पोते के नाम.मेरा ही पैसा मेरे काम नहीं आता,कहां जाऊं, किससे कहूं?नौकर भी झूठी सच्ची शिकायतें लगा कर डांट खिलवाता है,बहू रानी को मुझसे ज़्यादा भरोसा नौकर की बात पर है, कहती है, ये चला गया तो घर कौन देखेगा.नौकर मेरे हिस्से का दूध भी खुद पी जाता है,दोपहर के खाने में मोटी मोटी रोटियां पतली दाल के साथ परोस देता है,मुझसे ऐसा खाना चबाया नहीं जाता, दांत जवाब दे रहे हैं.रात का खाना चटपटा होने के कारण नहीं खा पाती.बेटे के घर लौटते ही मुझे अपने कमरे में बन्द हो जाना पडता है,मेहमानों के सामने भी आना मना है.बेटा तुम ये बातें मेरी बहू को मत बता देना, वरना मेरा घर में रहना मुश्किल हो जाएगा." अपना दिल हलका कर के वो धीमे कदमों से अपने घर(?) की ओर लौट गईं,मेरे सामने कई प्रश्न छोड कर.मुझे कतई विश्वास नहीं आ रहा था कि हम जैसे लोगों के बीच ऐसे लोग भी रहते हैं जो जानवर को तो पुचकारते हैं किन्तु बूढे मां-बाप को बोझ समझ कर दुत्कारते हैं.

Tuesday, April 15, 2008

गरमी की छुट्टी

अहा !! बडे अरमान थे कि पुपुल के बोर्ड्स की परीक्षा के बाद साल भर की और विषेश तौर पर मार्च के महीने की थकान,अप्रेल के पहले १५ दिनों तक सुस्ता कर बिताएंगे.पैर पसार कर दोपहरिया भर सुस्तायेंगे,खूब ब्लौगिंग करेंगे.पर हाय! विधना को ये मन्ज़ूर ही ना था,उसने दूसरों को थकान उतारने हेतु हमारे यहां मेहमान बना कर भेज दिया.इस दौरान ब्लौग जगत से भी हेलो-हाय नसीब नहीं हुई,उंगलियां लगातार की-बोर्ड पर थिरकने के लिये मचलती रहीं, मन ही मन कितने ही चिट्ठों के खाके खींचे गये, इसका कोई हिसाब ही नहीं.
मेहमान भी कोई एक नहीं, सब अलग अलग उम्र के, अलग अलग शहरों से एक के बाद एक चले आये.गेस्ट-रूम खाली हुआ नहीं कि फ़िर आबाद होता चला गया.आज हमारे गेस्ट-रूम की दीवारें उदास हैं,डबल-बेड साफ़ सुथरा किन्तु सुस्त सा दिख रहा है.और तो और हमारी चन्चल वैली( हमारी ६ महीने की लैब्राडोर)भी एक कोना पकड कर चुप-चाप पडी है.कारण समझ ही गये होंगे, सब मेहमान रुखसत हो गये हैं.सबसे पहले मायके से बुआ-फ़ूफ़ाजी आ कर रहे, उनका आना उनकी उम्र के मुताबिक ही घर में शान्त वातावरण लेकर आया. सब कु्छ आराम -आराम से, कोई जल्दी नहीं,हडबडी नहीं. इस बहाने बुआ के हाथ के भरवां करेले भी खाने को मिले, गणगौर की पूजा भी उनके मार्ग-दर्शन में संपन्न हुई,वर्ना हर साल अकेले ही जैसे तैसे पूजा कर के गणगौर की फ़ोर्मैलिटी पूरी कर लेती थी.उनके जाने के एक घण्टे के अन्दर ही जयपुर से हमारी मित्र अपनी दो बेटियों,बेटी की सहेली,५ लव-बर्ड्स और एक पानी वाली कछुए के साथ चली आयीं. सबसे पहले उनके छो्टे से कछुए पोगो की रिहाइश का इन्तेज़ाम किया गया.उसे पानी से भरे शीशे के बरतन में रखा गया,घरेलु वातावरण देने के लिये हमारे अक्वेरियम से कुछ पत्थर उधार ले कर उसमें डाले गये, थोडा सा फ़िश-फ़ूड डाल कर पोगो भैया को एक ऊंचे पर रख दिया गया.अब लव-बर्ड्स की बारी आयी, तो उनके पिन्जरे में दलिया और बाजरा डाल कर पिन्जरे को फ़्रिज के ऊपर रख गया ताकि वैली की शैतानियों का साया निरीह चिडियों पर ना पडे.वैली भी अगन्तुकों की मेहमानी करने के लिये बेताबी से इधर उधर चक्कर काट रही थी.तब तक बाकी मेहमानों की चाय तैयार हो चुकी थी.घर में महिलायों की संख्या में आयी इस बढोतरी से घर के एक मात्र पुरुष यानि हमारे पति कुछ अलग थलग पड गये.लगने लगा मानो वो ही इस घर के मेहमान हैं.घर में टीन-एजर्स का राज्य छा गया,रात भर गप्पें,संगीत का शोर,मिड-नाइट स्नैक्स का दौर.उनके कमरे से परफ़्यूम और नेल-पौलिश की मिलीजुली गन्ध, रात में खाये गये स्नैक्स की खुशबू में मिल कर अजीब सा माहौल बना देती थी. सुबह असीम शान्ति,क्यूंकि,लड्कियां तो १०-११ बजे तक उठेंगी.फिर नाश्ता,नहना-धोना और शोपिन्ग के लिये कूच करने की तैयारी.ये बाहर जाने की तैयारी युद्ध स्तर की होती थी.कपडे,ज्वेलरी, चप्पल,मेक-अप,बैग-पर्स इत्यादि सब मैच मिला कर, सज धज कर सुन्दरियों की टोली जब कूच करती तो मुझे बाज़ार वालों पर तरस आ जाता,किस किस का दिमाग खायेंगी.हां,मनचलों की किस्मत से ज़रूर रश्क होता.घर में रौनक ही रौनक, उनके जाते ही घर भर में उदास शान्ति छा गई है.ना लव-बर्ड्स की चह-चहाट है, ना लडकियों की खिलखिलाहट है.ना बेवक्त चाय और गौसिप के दौर हैं.बस हम रह गये हैं.एक बात बतायें, हम भी जा रहे हैं कल मेहमान बन के.हमारी भी गरमी की छुट्टी है,HAPPY HOLIDAYS TO EVERY BODY !:)

Saturday, March 29, 2008

इज़्ज़तदार लोग

बिटिया के बोर्ड एक्जाम्स के बाद कल एक मित्र के यहां रात्रि भोज पर आमन्त्रित थे हम लोग.यकीन मानिये जितने चाव से हम उनके यहां गये थे उतने ही बदमज़ा हो कर वहां से लौटे.हुआ यूं कि वहां पर हमें एक ७-८ साल की प्यारी सी बच्ची मिली जिसका परिचय हमारी मित्र सुनीता ने मिर्ची कह कर करवाया.ये भला क्या नाम हुआ? हमारे पूछने पर उन्होंने बताया कि यह हमारी फ़ुल टाइम मेड है.बहुत चंचल है,फ़ुर्तीली है,किन्तु पट से जवाब भी दे देती है, इसीलिये हमारे पतिदेव ने इसका नाम- करण मिर्ची कर दिया है.मै ये देख के हैरान थी कि इतनी छोटी सी बच्ची २४ घन्टे में कितना काम कर पाती होगी.लेकिन वाकई मिर्ची दौड-दौड कर सारे काम फ़ुर्ती से निबटा रही थी, बीच बीच में बच्चों के कमरे में जाकर एक झलक टीवी की भी देख आती थी.मेरे आगे तरह तरह के स्नैक्स रखे थे, जो ड्रिन्क्स के साथ पेश किये गये थे, किन्तु मेरे मन में कुछ और ही घुमड रहा था. इससे उम्र में बडे हमारे बच्चे रिलैक्स करते हुए, पसर कर टीवी देख रहे हैं, हाथ में कोल्ड ड्रिन्क, सामने चिप्स की प्लेट.ये छोटी सी मिर्ची, (जिसका असली नाम तक हमारे सामने नहीं आया है), सबकी सेवा में व्यस्त है.क्या इसका मन बच्चों के साथ खेलने को नहीं करता होगा?क्या इस का मन नहीं करता होगा, कोई इसके हाथ में भी कोल्ड ड्रिन्क पकडा कर कहे,"तू भी बच्चों के साथ टीवी देख ना?"
बहरहाल, समय धीरे धीरे कट रहा था, मेरा मन मिर्ची में ही अटक रहा था.रात के ११ बज गये,अचानक हमारे मेजबान को सिगरेट की तलब हो उठी.घर में ढूंढा,सिगरेट नहीं मिली.मेजबान महोदय ने एक सीटी मारी,मिर्ची हाज़िर हो गई.बिना कुछ बोले उन्होंने एक आंख दबाते हुए ५० रु. का नोट उसे पकडा दिया.मिर्ची ये जा और वो जा.मेरी प्रश्नसूचक निगाह भांपते हुए बोले,"पान की दुकान तक भेजा है.जब वो मेरे लिये सिगरेट लाती है तो मै उसे १ रुपया देता हूं.खुशी खुशी चली जाती है."मैने तुरन्त कहा,"उसे अकेले इतनी रात को पान की दुकान पर अकेले क्यूं भेज दिया, हमारी बेटियों को साथ भेज देते?" तपाक से प्र्श्न के जवाब में प्रश्न आया,"अरे !! इतनी रात को हमारी लडकियां पान की दुकान पर कैसे जायेंगी? वहां तो इस वक्त गुन्डे और शराबी किस्म के लोग होते हैं.मै सन्न रह गई.मासूम मिर्ची एक रुपये के लालच में अनजाने में खतरे में पड रही थी, और हमारी लडकियां? इज़्ज़तदार घर की लडकियों को खतरे में कैसे और क्योंकर डाला जाये? मै कोस रही थी उस पल को जब हमसे उनकी मित्रता स्थापित हुई थी.

Wednesday, March 26, 2008

सेन्स-नोनसेन्स: रोमान्स की कमी !

कभी कभी ऐसे लोगों से पाला पड जाता है, जिनकी भोलेपन में की गई कोई कोई बात बरबस ही होठों पर हंसी ले आती है.बात बहुत पुरानी है लेकिन आज भी याद करते ही मन में हंसी फ़ूट पडती है.ये बात मध्यप्रदेश के एक बहुत छोटे से कस्बे से ताल्लुक रखती है, जहां मेरी बुआ का ससुराल है.उनके पडोस में एक अल्प-शिक्षित महिला रहती थीं. काफ़ी दिनों से वो कुछ असवस्थता महसूस कर रही थी. जैसा कि अमूमन होता है, उनके स्वास्थ्य के प्रति कोई घर-वाला सजग नहीं था, सो वो खुद ही अपनी जांच कराने चिकित्सक के पास चली गईं.कुछ देर बाद जब वो लौट रही थे तो बुआ से उनका सामना हो गया.बुआ ने चिन्ता से पूछा," का बताया डाक्टर ने,चच्ची?" चच्ची लम्बी उसांस लेकर बोलीं,"अब का बताएं दुल्हन, डाक्टर ने सारी जांच करके कहा कि हम को रोमान्स की कमी हो गई है, अब वो ही हमारा इलाज कर के रोमान्स की कमी दूर करेगा.ये लो रपट और पर्चा पढ लो".बुआ ने पर्चा हाथ में लेकर ज्यूं ही पढा, वो हंसते हंसते लोट-पोट हो गईं.चच्ची के पर्चे में लिखा था,हार्मोन्स की कमी.बुआ बोलीं "ये लो चच्ची,तुम चच्चा से बोल के तो देखो, ये कमी तो चच्चा ही दूर कर सकते हैं,इसमें डाक्टर बिचारा कछु नहीं कर पाएगा".फ़िर क्या था,चच्ची की बीमारी सारे कस्बे के टाइम-पास का ज़रिया बन गई.
ऐसा ही एक किस्सा मेरे घर काम करने वाली सुमति से ताल्लुक रखता है.सुमति बिहार की है और मुझे उसकी बिहारी भाषा बहुत रोचक लगती है.एक दिन वो बातों बातों में किसी रिश्तेदार से हुई भेंट का ज़िक्र करते हुए बोली,"ऊ तो हुमको बदवे ही मिल गईल".दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाने पर भी जब हमको बदवे शब्द का मतलब समझ नहीं आया तो शाम को सुमति से ही हमने इस खास शब्द पर प्रकाश डालने का आग्रह किया. वो बडी ठसक से बोलीं,"का हो दीदी? ओ दिन आप ही तो अपनी सहेलिया से कहबू करे कि तोका तोहार मामी बदवे ही बजार मां मिल गई रहिन". बात हमारी समझ में आ ही गई आखिरकार.शायद आप ना समझ पाये हों . दर-असल सुमति जी ने हमें अपनी सहेली से फ़ोन पर गपियाते सुन लिया था, जब हम अपनी सहेली से कह रहे थे कि हमारी मामीजी हमको बाज़ार में by the way मिल गई थीं.अब सुमतिजी के भाषा ग्यान पर हंसें या सर फ़ोडें, आप ही बतायें.

Sunday, March 23, 2008

JUST FOR A LAUGH

Though Holi has just drifted by, I am sure that the humorous mood is still lurking by in most of us.As I was idling away on the net, I came across this real funny piece that I thought of sharing with u all.This eager to please,newly wed girl is identical to so many characters that we across in our daily life. Go on, have a laugh:

DIARY OF A NEWLY WED WIFE


Monday:
Now home from honeymoon and settled in our new home.
It's fun to cook for Tim. Today I made an angel food cake and the recipe said, "beat 12 eggs separately." Well, I didn't have enough bowls to do that, so I had to borrow 12 bowls to beat the eggs in. The cake turned out fine though.

Tuesday:
We wanted a fruit salad for supper. The recipe said, "serve without dressing." So I didn't dress. But Tim happened to bring a friend home for supper that night. They both looked so startled when I served them; I think it was the salad.

Wednesday:
I decided to serve rice and found a recipe which said, "wash thoroughly before steaming the rice." So I heated some water and took a bath before steaming the rice. Sounded kind of silly in the middle of the day. I can't say it improved the rice anyhow.

Thursday:
Today Tim asked for salad again. I tried a new recipe.
It said, prepare ingredients, and then toss on a bed of lettuce one hour before serving." I hunted all over the place for a garden and when I got one, I tossed my salad into the bed of lettuce and stood over there for over one hour so the dog would not take it. Tim came over and asked if I felt all right. I wonder why? He must be stressed at work, I'll try to be supportive.

Friday:
Today I found an easy recipe for cookies. It said, "put all ingredients in a bowl and beat it." Beat it I did, to my mum's place. There must have been something wrong with the recipe, because when I came back home again; it looked the same as when I left it.

Saturday:
Tim went shopping today and brought home a chicken. He asked me to dress it for Sunday. I'm sure I don't know how hens dress for Sunday. I never noticed back on the farm, but I found an old doll dress and its little cute shoes. I thought the hen looked really cute. When Tim saw it, he started counting to ten. Either he was really stressed because of his work, or he wanted the chicken to dance.

When I asked him what was wrong he started crying and shouting out "why me? Why me?"

Hmmm....It must be his job.

Thursday, March 20, 2008

ये कैसे रंग?

आज मेरे चारों ओर भडकीले गानों का शोर है.होली आ रही है न? My ears are already aching with all kinds of music(?). These days music is not supposed to relax or soothe ur nerves, rather it has become a means to pep up.Chill yaar!youngsters exclaim. There are loud punjabi songs,lurid bhojpuri songs and some find it very fashionable to sway on the music of cacophonous english songs.There is a certain crazyness attached with festive mood these days.
ज़रा आंख बन्द करके होली की पुरानी यादों का झरोखा खोलिये और खो जाइये, खालिस देशी घी में तली जा रही गुझियों की खुशबू में,पडोस की ताईजी के यहां से आ रही मठरियों की गंध में.आ रहा है ना मुहं में पानी.मां के हाथ की बनी पापडी का स्वाद आज तक ज़बान पर रहता है. होली के दो दिन पहले से ही हर घर से पकवान तलने की सौन्धी-सौन्धी खुशबू हवा में तैरने लगती थी. कहीं मोहनथाल के लिये बेसन भूना जाता था, कहीं कचौरियों का मसाला तैयार किया जा रहा होता था.वैसी खुशबू के लिये अब तो नासिका तरस गई है. होली के कितने ही दिनों पहले से घर घर से आती थी होरी की स्वर लहरियों की मधुर गून्ज. कहीं तबले -ढोलक की थाप, कहीं हारमोनियम पर बजती राग काफ़ी की धुन. मुझे अच्छी तरह से याद है,मेरे नानाजी के होठों पर सिर्फ़ और सिर्फ़ होरी की गुनगुनाहट होती थी. कितनी ही बार हमारे नानाजी या उनके किसी मित्र के यहां संगीत की महफ़िलें जमती थी.कोई रसिया गा रहा होता था, कोई चैती.
खेलने वाली होली के दिन किसी के मुंह पर काला हरा रंग नहीं दिखता था.हर तरफ़ लाल,गुलाबी, पीले रंग बिखरे होते थे.गीली होली भी शालीनता के साथ खेली जाती थी.हर उम्र का लिहाज़ कर के होली खेली जाती थी.उम्र में छोटे लोग अपने से बडे लोगों के चरणों में गुलाल अर्पित करके आशीर्वाद लेते थे.सब अपने अपने groups and troops बना कर होली का मज़ा लूटते थे.सब अपने अपने मस्त.जीजा-साली,देवर-भाभी की होली तब romantic और रंगीन होते हुए भी मर्यादित होती थी.
अब इस यादों के झरोखे में से बाहर निकलिये और वर्तमान के गलियारे में झांकिये.ये क्या? यह संगीत है या शोर?ऐसे ऐसे अश्लील गीतों का प्रचलन हो गया है कि जिनके कानों में पडने से ही चित्त अव्यवस्थित हो उठता है.कानफ़ोडू गाने,गन्दे लतीफ़ों से बचना लगभग मुश्किल हो जाता है इन दिनों.ना किसी की उम्र का लिहाज़ किया जाता है, ना रिश्ते का.मनभाते रंगों की जगह अब कीचड,ग्रीस और पक्के रंग ने ले ली है.गुलाल मिलता है वो भी मिलावटी,जिससे त्वचा पर गलत असर पडता है.मेरे ससुराल एटा की होली से तो मेरी आज भी रूह कांपती है, वहां के बाशिन्दे, कीचड तो क्या, गोबर से भी परहेज नहीं करते.होली के अवसर पर पीना-पिलाना वहां घर घर में प्रचलित है.मैं तो वहां जाकर ससुरजी की शरण लेकर बच जाती हूं.उनके सामने किसकी मज़ाल है जो मुझे रंग लगाएगा.
अब तो सद्ग्रहणियों ने भी रसोई से पल्ला झाड लिया है.भई, बाज़ार में सब कुछ तो मिलता है, जो चाहो खरीद लाओ.कौन सिर फ़ोडे, कढाई-कलछी से!मेरी खुद की सहेलियां मेरी उम्र की होते हुए भी, मेरे रसोई प्रेम का मज़ाक उडाती हैं.भई,अब इस इला का क्या कहना, ये तो शायद पैदा ही रसोई में हुई थी.Cooking is considered as a taboo these days.भला बाज़ार की गुझिया-मठरी-पापडी में वो स्वाद कहां से आयेगा? What is the harm in cooking for friends and family?
शनै:शनै, होली से मन भरता जा रहा है.इस साल यूं भी उदासी क आलम है, क्यूंकि पतिदेव घर से बाहर,दिल्ली से दूर गोआ में हैं,बिटिया जो कि बोर्ड दे रही है,मीसल्स की चपेट में है. क्या तो रंग और क्या तो पकवान? इसीलिये अपनेराम बैठ गये कागज़-कलम(माउस-कीपैड) ले कर.बहर-हाल सब को होली की बधाई.जैसा भी है, है तो हमारा प्यारा त्यौहार.

Friday, March 14, 2008

Miserable morning

Yesterday morning started as a normal happy morning. Pupul, my daughter was humming cheerfully while getting ready to leave for her board exam. she was comparatively very relaxed as it happened to be her strongest subject(English) that day. Husband left home at 8.30 in a hired taxi, as we had to use our car to drop her to her centre that is a mere 15 mins drive from our home. So after having settled Valley my pup comfortably, giving right instructions to my maid, we left for her exam centre at 8.45. We are continuously joking and laughing about little things on the way, like the poor chicks going to be consumed for dinner, chirping unmindful of their fatal future , like the newly wed village belle sitting shyly behind her hubby's bicycle and certain other funny things that catch our attention.आपने देखा होगा,लाल चटक साडी और गहरी ला्ली,सिन्दूर में लजाती हुई नव विवाहिता कैसा चित्र प्रस्तुत करती है.खैर अभी मुख्य मुद्दे पर ही लिख्ना उचित रहेगा. The traffic seems to be slower than usual but we are relaxed as we still have 45 min. to reach the centre,the gates close at 10 AM and it is still 9.15. Suddenly there is a massive traffic jam on the highway, and we have no other way to go . Traffic inches forward slowly, it is now 9.20 and though I m still joking, Pupul is becoming quieter.Now by 9.45 AM traffic comes to a standstill. The intersect at the highway is now a scene of total chaos,loud honking from the vehicles is almost deafening, drivers start losing all control on tempers and tongue, they use their most active organ i.e. their tongue to hurl out choicest abuses in hindi.किसी ब्लोग में पढा था,गालियां मादरेज़बान में ज़्यादा मज़ा देतीं हैं. अब बिटिया को कैसे समझाऊं?जो लोग यहां गालियां दे कर अपने मन की भढास निकाल रहे हैं, उनकी मां बहनें शायद सडकों पर नहीं निकलतीं.It is difficult not to avoid these mahashlokas getting into our tired ears.The range of vehicles jamming the road has a variety right from bicycles, tractors, cars, two wheelers and not to forget the buffalo carts known as buggis in our area. Now Pupul has started sobbing uncontrollably. I have never felt so helpless in all my life, my daughter is about to lose a year. लाचारी अपनी समूची ताकत लगा कर हमारी हिम्मत और धैर्य को चुनौती दे रही है.The driver has switched off the AC coz we r ruuning short of fuel too. सारी मुसीबतें एक साथ आ खडी हुई हैं. My driver Ravi, is a man of composure, he turns the car into a by lane somehow, and we meander in the long dusty lanes of Indirapuram.Finally we come to the highway but now it is already 10.10 Am, only 20 mins. for the paper to start.Again we face a jam due to nonfunctional trafic lights . I am seething with anger at the entire system. I call up Pupul's scool to inform the centre ,. Rakesh also searches out the centre's contact no. thanks to Internet and call them.We'll be allowed, they inform us . Finally we attack the gate at 10.45 AM, Pupul plunges into the gate and rushes inside without turning back. I keep on looking at her diminishing figure, then turn back sadly.Now I encounter several harried parents outside the centre, some of them have made their children run for 2 kms under the sun, abandoning their cars on the highway, adding to the chaos. Each one has a harrowing tale to narrate, I feel saddened at the state of affairs in a city like Delhi.
Who can I put the blame on? The ever increasing traffic, the indifference of traffic police, the insensitivity of people, lack of planning or myself? Perhaps I should have started at the first strike of sunlight.I hope no child has to suffer like this. I am amazed at the strength displayed by Pupul,who some how managed to finish the entire paper in 2hrs., though she is not satisfied with her performance. Anyway now I have sworn that I will avoid the highway for her forthcoming exams, even if it means venturing into narrow and crowded by lanes.आगे खुदा खैर करे.

Wednesday, February 13, 2008

Life with pets


People who have kept pets would certainly agree with me that life gets fuller after having pets at home. There are people who fancy animals in the zoo and recoil at the sight of pets , especially dogs. I witness so many neighbours in my society, who stick against the wall of the elevator on sighting my dog Valley in the lift. Yet there are some who long to meet and greet Valley.We had a 4 and a half yr old labrador who passed away in October 2007, leaving a void in our life.I did not know till then that she had such a large fan following in my society and friends.For days after her death we had visitors at home who came for condolence and paying homage to her.For days together my intercom and phone would ring and there would be some neighbour showing their regret at Valley's demise. My maids mourned her death for so many days, and as we found out that we were not alone in our grief. Small children refused their meals, remained subdued for days together on hearing about Valley. All his made me wonder what had Valley done to gain this reputation. In a city like Delhi, where nobody has the time to mourn the death of relatives, where people do not find time to condole the death of neighbours, Valley had so many admirers.All this is no fabrication of my imagination, this is a pure ansd simple narration of my heart touching experience.



Answer is not that simple, yet quite easy . She had touched other people's lives in various ways ever since she was a puppy. Very well behaved, she never jumped on others like normal dogs, neither did she bark and disturb the neighbours. She wouldn't mind climbing five floors in case the elevator was full or its occupants were scared of her. She had a definite dignified gait. She wasn't greedy in the least,always waited for food to be put in her bowl. She had such beautiful expressive eyes, that befriended even those who did not like pets.Her brown eyes in her heavyset face would speak volumes about her persona.


And when she fell ill, must say, she fought bravely with her illness. Not refusing once to visit the Vet, getting injected twice a day, getting intravenous treatment for half an hour twice a day ,she bore it all too bravely.Even now my eyes well up with tears, when I remember her face.It is too sad that she had to leave us like this. But soon after we got ourselves a new pet, junior Valley, who resembles Valley only in looks and is every bit a naughty brat.Now she has made my life busier than before.



The reason why I am writing this blog is that we brought our old Valley home on 14th feb,2003, we got it as a Valentine Day's gift from my husband Rakesh( hence the name Valentine, Valley for short). Tomorrow is Valentine's day and we remember her with our hearts, full of her memories. It is for sure that she has become a star in the heaven and has attained more popularity there. Afterall God also needs stress busters like Valley.

Saturday, February 9, 2008

THEY DESERVE A BETTER LIFE

How often have I seen well to do families going to posh restaurants for late night dinners, most of these are accompanied by teenage girls, who are short, dark, wearing loose , ill fitting handed down clothes. These girls do not match the beauty and status of other family members, and we guess naturally that these girls with sullen faces and list less eyes are so called maids or governesses to the cute and cuddly child belonging to the family.These girls are made to sit out side the restaurant, while the family enjoys a luxurious meal in air conditioned surroundings. Sometimes they keep the child with them, sometimes they hand over the child to the maid so that they can eat in peace. Now we can very well imagine the pathetic state of the maid, who might be feeling cold or hot as per the season, she is all alone, unescorted and unsafe. So many times I have observed loitering men passing crude remarks at the girl, some even trying to touch her or pinch her. The tongue tied, scared girl recoils into herself. I want to ask every one, would we expose our daughter or sister to such plight? The maid might be hungry, she would have to wait till she reaches home after mid night and have a paltry meal. When it comes to our daughter, we will not even send her across the road to get bread or fruits, for we fear her safety, but we can send a 14-20 yrs old maid to buy things as late as 9 in the evening. Then we complaint that maids these days are not trustworthy.How can we expect trust when we do not trust them over one or two rupees.Isn't it ironical that we trust our household and kids to the maids but do not trust her intentions. It is good to be careful but we should know it better as to how much the limit should be stretched. We do not even scold our young ones at home, but would not mind slapping the maid for any petty issue.We do not realise now that we are responsible for building a dissatisfied, violent society around us.It is no wonder that incidents of maids abducting kids, attacking their mistresses, robbing their employers are on the rise. It is time we respected human beings. Even if we cannot treat our maids as equals, we should at least stop exposing them to harassment and violence. They are an important component of our house hold, it is because of them that women can freely work while their homes and kids are taken care of. Would it matter much if we could shell out a few extra rupees to buy them decent clothing? 
 They are entitled to a decent, respectable life, and it is our joint responsibility to give them love
and care in lieu of all they are doing to keep our lives hassle free.
We must try to educate them,
 nurture them for they too are
 somebody's daughters.  

It's our collective responsibility to let these womenfolk live safely  with their dignity intact.